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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

..बहाना ढूंढ़ लिया

..बहाना ढूंढ़ लिया
कुछ रोज गुजारने की खातिर,एक आशियाना ढूंढ़ लिया
ता-उम्र होश में न आ सकू,ऐसा एक मयखाना ढूंढ़ लिया

क्या मालूम था मुझे,के होगी झूठी वो महफिले अपनी
अब आयी अक्ल,के जीने की खातिर वीराना ढूंढ़ लिया

पूछेगा गर खुदा मुझको,लाये क्या हो उस जहा से तुम
कर दूंगा नजर ये दिल टुटा,ऐसा एक नजराना ढूंढ़ लिया

मिलती नही जो इस दुनिया में,एक पहचान अब मुझको
अक्स जो देखा शीशे में अपना,के कोई बेगाना ढूंढ़ लिया

अपनी सूरत-ऐ-हाल पे 'sandeep'हसता है ये सारा जमाना
हम भी समझेंगे के लोगो ने,हसने का बहाना ढूंढ़ लिया

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

quotes

Remember This One?

If we were logical,
the future would be bleak indeed.
But we are more than logical.
We are human beings,
and we have faith,
And we have hope.

- Jacques Cousteau
ख़ुद दिल में रह के आँख से पर्दा करे कोई|
हाँ लुत्फ़ जब है पाके भी ढूँढा करे कोई|

तुम ने तो हुक्म-ए-तर्क-ए-तमन्ना सुना दिया,
किस दिल से आह तर्क-ए-तमन्ना करे कोई|

दुनिया लरज़ गई दिल-ए-हिरमाँनसीब की,
इस तरह साज़-ए-ऐश न छेड़ा करे कोई|

मुझ को ये आरज़ू वो उठायें नक़ाब ख़ुद,
उन को ये इन्तज़ार तक़ाज़ा करे कोई|

रन्गीनी-ए-नक़ाब में ग़ुम हो गई नज़र,
क्या बे-हिजाबियों का तक़ाज़ा करे कोई|

या तो किसी को जुर्रत-ए-दीदार ही न हो,
या फिर मेरी निगाह से देखा करे कोई|

होती है इस में हुस्न की तौहीन ऐ 'मज़ाज़',
इतना न अहल-ए-इश्क़ को रुसवा करे कोई|

संतमत

"कह कबीर तू राम की अंश"
परमात्मा का अंश तो परमात्मा ही हुवा न छोटासा
सोने की इतनी बड़ी डली लेलो उसमे से थोडा टुकडा काट लो तो वो सोना ही हुवा न
शुद्ध सोना है हम सब, परंतु इस सोने को माया का,कर्मो का कचरा लग गया है, लेकिन कचरे में भी सोना है तो उसका मोल थोडी कम हो गया कोई, साफ करो उसकी कीमत वही है
कोई दोष, कोई खोट नहीं है हममे, कोई पापी भी नहीं है, पाप भी अपवित्र नहीं कर सकता हमें, अगर परमात्मा का अंश अपवित्र हो गया तो, परमात्मा भी अपवित्र हो सकता है
भगवन के पास न पाप जायेगा न पुण्य जायेगा, अगर सिर्फ पुण्य ही वहा जा सकता है, तो गलत है, फिर वो भगवान नहीं है, वहा सौदा नहीं है, वहा सिर्फ शुद्ध जायेगा
पाप भी बोझ है और पुण्य भी, दोनों का फल भुगतना है अच्छा या बुरा
लेकिन परमात्मा की भक्ति एक एसा यज्ञ है सब स्वाहा, पाप क्या पुण्य भी नहीं बचेंगा
"पुरन प्रगटे भाग्य कर्म का कलसा फूटा"
एक दिन एसा आता है भगवन की भक्ति-ध्यान करते-करते इतना तेज आ जाता है जो घडा है कर्म का जिसमे पाप-पुण्य जो कुछ भी भरा पड़ा है वो फुट जाता है और ये अंश परमात्मा में समां जाता है, और परमात्मा ही हो जाता है

जाति धरम का भेद क्यों

मेरी सांसों में यही दहशत समाई रहती है
मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा।
यूँ ही खिंचती रही दीवार ग़र दरम्यान दिल के
तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा।
जिस जगह की बुनियाद बशर की लाश पर ठहरे
वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सुन लो तुम
काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हुक्म पे फितन
यूँ ही चलते रहे तो सोचो, ज़रा अमन का क्या होगा।
अहले-वतन शोलों के हाथों दामन न अपना दो
दामन रेशमी है "दीपक" फिर दामन का क्या होगा।
@कवि दीपक शर्मा
http://www.kavideepaksharma.co.in
इस सन्देश को भारत के जन मानस तक पहुँचाने मे सहयोग दे.ताकि इस स्वस्थ समाज की नींव रखी जा सके और आवाम चुनाव मे सोच कर मतदान करे.

संतमत:

"जो तुझ भावे सोई भली कर"
जो तू चाहे, जो तू करे वो ही अच्छा है,जो तू मुझे दे वो भी अच्छा, जो तू मुझे न दे, वो भी अच्छा!
मै नासमझ क्या कर सकता हु, मै ना समझ तो नासमझिया ही तो कर सकता हु, मै नासमझ क्या मांग सकता हु? एक बच्चा मांगेंगा भी तो क्या? खिलौना या चौकलेट इससे ज्यादा क्या मांगेंगा? मै क्या मांगता हु इसपे ध्यान मत देना हे परमपिता, जो तू दे वो भी अच्छा,जो तू ना दे वो भी अच्छा
समुद्र की सतह पे एक लहर है उसकी इच्छा ही क्या हो सकती है?वो इच्छा करे भी तो क्या फ़ायदा? क्युकी थोडी देर बाद वो लहर भी मिट जाएँगी! जो सागर की इच्छा, वो लहर की इच्छा हो जाये, और जो तेरी इच्छा है परमपिता वो मेरी इच्छा हो जाये!
"हुकुम रजाई चलना नानक लिखिया नाल"
तेरे ही हुकुम पे चलू, एसा हो जाये कुछ, तू जानता है की सही क्या है, क्युकी तू कल भी था तेरे को कल का भी पता है, तू आज भी है तेरे को आज का भी पता है, तू कल भी होंगा, की कल क्या चाहिए वो भी तुझे पता है, मुझे क्या मालूम कुछ? इसलिए तू जो करेंगा वो ही सही होंगा!
तू सदा सलामत निरंकार, तू आद् सच है जुगात सच है तू कल भी सच होंगा तू ही तू होंगा, तेरी ही मर्जी!

नया din

भला मुझ को परखने का नतीजा निकला
ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला

तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला

जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने
बू उड़ी धूप से, तसवीर से साया निकला

jindagi जम गई पत्थर की तरह होंठों पर
डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला

जीवन कैसे जिए

तन में क्या रखा है बन्दे, तन मिटटी की माया है...
मिट्टी में ही मिल जायेगा, जो मिटटी से आया है
मिट्टी है पहचान सभी की, मिटटी ही तो जननी है
मिट्टी ही है फल जीवन का मिट्टी ही तो करनी है
मिट्टी में ही उगते देखा पौधों, पेडों, पत्तों को
मिट्टी में ही बनते देखा गलियों सड़कों मेडों को
मिट्टी में धंसते देखा मैंने महल अटरों को
मिट्टी से ही आते देखा मैंने प्रलय, बहारों को
एक मिट्टी पर जागा सब जग एक मिट्टी पर सोया
एक मिट्टी पर पाया सबकुछ एक मिट्टी पर खोया
कोई इस मिट्टी को पूजे कोई तिलक लगाये
मिट्टी में ही पैदा होकर मिट्टी में मिल जाये
बाँट नहीं पाओगे इसको खींचो जितनी रेखा
मिट्टी जिसके साथ गयी हो ऐसा कोई देखा??
फिर क्यों तेरा मेरा कहकर मचा रहे हो शोर
इसका भी है-उसका भी है, ये हो या वो छोर
ऐसा सोचोगे तो तुमको बंधेगी एक डोर
कितनी अदभुत होगी जब आएगी ऐसी भोर.

jeevan

हर चोट के निशान को सजा कर रखना ।
उड़ना हवा में खुल कर लेकिन ,
अपने कदमों को ज़मी से मिला कर रखना ।
छाव में माना सुकून मिलता है बहुत ,
फिर भी धूप में खुद को जला कर रखना ।
उम्रभर साथ तो रिश्ते नहीं रहते हैं ,
यादों में हर किसी को जिन्दा रखना ।
वक्त के साथ चलते-चलते , खो ना जाना ,
खुद को दुनिया से छिपा कर रखना ।
रातभर जाग कर रोना चाहो जो कभी ,
अपने चेहरे को दोस्तों से छिपा कर रखना ।
तुफानो को कब तक रोक सकोगे तुम ,
कश्ती और मांझी का याद पता रखना ।
हर कहीं जिन्दगी एक सी ही होती हैं ,
अपने ज़ख्मों को अपनो को बता कर रखना ।
मन्दिरो में ही मिलते हो भगवान जरुरी नहीं ,
हर किसी से रिश्ता बना कर रखना ।
मरना जीना बस में कहाँ है अपने ,
हर पल में जिन्दगी का लुफ्त उठाये रखना ।
दर्द कभी आखरी नहीं होता ,
अपनी आँखों में अश्को को बचा कर रखना ।
मंज़िल को पाना जरुरी भी नहीं ,
मंज़िलो से सदा फासला रखना ।
सूरज तो रोज ही आता है मगर ,
अपने दिलो में ‘ दीप ‘ को जला कर रखना
किसी के इतने पास न जा

के दूर जाना खौफ़ बन जाये

एक कदम पीछे देखने पर

सीधा रास्ता भी खाई नज़र आये


किसी को इतना अपना न बना

कि उसे खोने का डर लगा रहे

इसी डर के बीच एक दिन ऐसा न आये

तु पल पल खुद को ही खोने लगे


किसी के इतने सपने न देख

के काली रात भी रन्गीली लगे

आन्ख खुले तो बर्दाश्त न हो

जब सपना टूट टूट कर बिखरने लगे


किसी को इतना प्यार न कर

के बैठे बैठे आन्ख नम हो जाये

उसे गर मिले एक दर्द

इधर जिन्दगी के दो पल कम हो जाये


किसी के बारे मे इतना न सोच

कि सोच का मतलब ही वो बन जाये

भीड के बीच भी

लगे तन्हाई से जकडे गये


किसी को इतना याद न कर

कि जहा देखो वोही नज़र आये

राह देख देख कर कही ऐसा न हो

जिन्दगी पीछे छूट जाय

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

god is here

खुशी की उपस्थिति का सबसे अचूक संकेत है भगवान

रविवार, 6 दिसंबर 2009

सहज योग : क्या है शिव योग

ओम नम: शिवाय।- 'ओम' प्रथम नाम परमात्मा का फिर 'नमन' शिव को करते हैं।

'सत्यम, शिवम और सुंदरम' - जो सत्य है वह ब्रह्म है- ब्रह्म अर्थात परमात्मा। जो शिव है वह परम शुभ और पवित्र है और जो सुंदरम है वही प्रकृति है। अर्थात परमात्मा, शिव और पार्वती के अलावा कुछ भी जानने योग्य नहीं है। इन्हें जानना और इन्हीं में लीन हो जाने का मार्ग है- योग।

शिव कहते हैं 'मनुष्य पशु है'- इस पशुता को समझना ही योग और तंत्र का प्रारम्भ है। योग में मोक्ष या परमात्मा प्राप्ति के तीन मार्ग हैं- जागरण, अभ्यास और समर्पण। तंत्रयोग है समर्पण का मार्ग। जब शिव ने जाना क‍ि उस परम तत्व या सत्य को जानने का मार्ग है, तो उन्होंने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु वह मार्ग बताया।

अमरनाथ के अमृत वचन : शिव द्वारा माँ पार्वती को जो ज्ञान दिया गया वह बहुत ही गूढ़-गंभीर तथा रहस्य से भरा ज्ञान था। उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएँ हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। 'विज्ञान भैरव तंत्र' एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।

योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव के '‍विज्ञान भैरव तंत्र' और 'शिव संहिता' में उनकी संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है। भगवान शिव के योग को तंत्र या वामयोग कहते हैं। इसी की एक शाखा हठयोग की है। भगवान शिव कहते हैं- 'वामो मार्ग: परमगहनो योगितामप्यगम्य:' अर्थात वाम मार्ग अत्यन्त गहन है और योगियों के लिए भी अगम्य है।-मेरुतंत्र

आदि पुरुष : आदि का अर्थ प्रारम्भ। शिव को आदिदेव या आदिनाथ कहा जाता है। नाथ और शैव सम्प्रदाय के आदिदेव। शिव से ही योग का जन्म माना गया है। वैदिककाल के रुद्र का स्वरूप और जीवन दर्शन पौराणिक काल आते-आते पूरी तरह से बदल गया। वेद जिन्हें रुद्र कहते है, पुराण उन्हें शंकर और महेश कहते हैं। शिव का न प्रारंभ है और न अंत।

'मनुष्य पशु है'

शिव कहते हैं 'मनुष्य पशु है'- इस पशुता को समझना ही योग और तंत्र का प्रारम्भ है। योग में मोक्ष या परमात्मा प्राप्ति के तीन मार्ग हैं- जागरण, अभ्यास और समर्पण। तंत्रयोग है समर्पण का मार्ग। जब शिव ने जाना क‍ि उस परम तत्व या सत्य को जानने का मार्ग है।

शिव को स्वयंभू इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वे आदिदेव हैं, जबकि धरती पर कुछ भी नहीं था सिर्फ वही थे, उन्हीं से धरती पर सब कुछ हो गया। ति‍ब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर प्रारम्भ में उनका निवास रहा। वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत धरती की सबसे प्राचीन भूमि है और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। फिर जब समुद्र हटा तो अन्य धरती का प्रकटन हुआ।

ज्योतिषियों और पुराणिकों की धारणा से सर्वथा भिन्न है भगवान शंकर का दर्शन और जीवन। उनके इस दर्शन और ‍‍जीवन को जो समझता है वही महायोगी के मर्म, कर्म और मार्ग को भी समझता है।

शैव परम्परा : ऋग्वेद में वृषभदेव का वर्णन मिलता है, जो जैनियों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ हैं, उन्हें ही वातरशना मुनि‍‍‍ कहा गया है। वे उनका जीवन अवधूत जैसा ब‍िताते थे। योगयुक्त व्यक्ति ही अवधूत हो सकता है। माना जाता है कि शिव के बाद मूलत: उन्हीं से एक ऐसी परम्परा की शुरुआत हुई जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगम्बर और सूफी सम्प्रदाय में वि‍भक्त हो गई।

इस्लाम के प्रभाव में आकर सूफियों से कमंडल और धूना छूट गया, लेकिन चिमटा और खप्पर आज भी नहीं छूटा। जो माला रुद्राक्ष की होती थी, वह अब हरे, पीले, सफेद, मोतियों की होती है। जो कुछ है सब उस योगीश्वर शिव के प्रति ही है। उनके निराकार स्वरूप को शिव और साकार स्वरूप को शंकर कहते हैं।

शैव और नाथ सम्प्रदाय की बहुत प्राचीन परम्परा रही है। जैन और नाथ सम्प्रदाय में जिन नौ नाथ की चर्चा की गई है वह सभी योगी ही थे और शिव के प्रति ही थे।

शिव का दर्शन : शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वह सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में ज‍ीयो, वर्तमान में जीयो अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

शिव का शिवयोग : इसे तंत्र या वामयोग भी कहते हैं। शिवयोग में धारणा, ध्यान और समाधि अर्थात योग के अंतिम तीन अंग का ही प्रचलन अधिक रहा है।

अंतत : शिव के दर्शन और जीवन की कहानी दुनिया के हर धर्म और उनके ग्रंथों में अलग-अलग रूपों में विद्यमान है और इस भिन्नता का कारण है परम्परा और भाषा का बदलते रहना, पुराणिकों द्वारा उनकी मनमानी व्याख्या करते रहना।

सहज योग

'संयम, ईश्वर प्राणिधान, अंग-संचालन, प्राणायाम, ध्यान।'


भागदौड़ भरी जीवन शैली के चलते मनुष्य ने प्रकृति और स्वयं का सान्निध्य खो दिया है। इसी वजह से जीवन में कई तरह के रोग और शोक जन्म लेते हैं। हमारे पास नियमित रूप से योग करने या स्वस्थ रहने के अन्य कोई उपाय करने का समय भी नहीं है। यही सोचकर हम आपके लिए लाए हैं योग के यम, नियम और आसन में से कुछ ऐसे उपाय, जिनके जरिए आप फटाफट योग कर शरीर और मन को सेहतमंद रख सकते हैं।

(1) संयम ही तप है : संयम एक ऐसा शब्द है, जिसके आगे पदार्थ या परमाणुओं की नहीं चलती। ठेठ भाषा में कहें तो ठान लेना, जिद करना या हठ करना। यदि तुम व्यसन करते हो और संयम नहीं है तो मरते दम तक उसे नहीं छोड़ पाओगे। इसी तरह गुस्सा करने या ज्यादा बोलने की आदत भी होती है।

संयम की शुरुआत आप छोटे-छोटे संकल्प से कर सकते हैं। संकल्प लें कि आज से मैं वहीं करूँगा, जो मैं चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ खुश रहना, स्वस्थ रहना और सर्वाधिक योग्य होना। व्रत से भी संयम साधा जा सकता है। आहार-विहार, निंद्रा-जाग्रति और मौन तथा जरूरत से ज्यादा बोलने की स्थिति में संयम से ही स्वास्थ्य तथा मोक्ष घटित होता है। संयम नहीं है तो यम, नियम, आसन आदि सभी व्यर्थ सिद्ध होते हैं।

(2) ईश्वर प्राणिधान : एकेश्वरवादी न भी हों तो भी जीवनपर्यंत किसी एक पर चित्त को लगाकर उसी के प्रति समर्पित रहने से चित्त संकल्पवान, धारणा सम्पन्न तथा निर्भिक होने लगता है। यह जीवन की सफलता हेतु अत्यंत आवश्यक है। जो व्यक्ति ग्रह-नक्षत्र, असंख्‍य देवी-देवता, तंत्र-मंत्र और तरह-तरह के अंधविश्वासों पर विश्वास करता है, उसका संपूर्ण जीवन भ्रम, भटकाव और विरोधाभासों में ही बीत जाता है। इससे निर्णयहीनता का जन्म होता है।

(3) अंग-संचालन : अंग-संचालन को सूक्ष्म व्यायाम भी कहते हैं। इसे आसनों की शुरुआत के पूर्व किया जाता है। इससे शरीर आसन करने लायक तैयार हो जाता है। सूक्ष्म व्यायाम के अंतर्गत नेत्र, गर्दन, कंधे, हाथ-पैरों की एड़ी-पंजे, घुटने, नितंब-कुल्हों आदि सभी की बेहतर वर्जिश होती है, जो हम थोड़े से समय में ही कर सकते है। इसके लिए किसी अतिरिक्त समय की आवश्यकता नहीं होती। आप किसी योग शिक्षक से अंग-संचालन सीखकर उसे घर या ऑफिस में कहीं भी कर सकते हैं।

(4) प्राणायाम : अंग-संचालन करते हुए यदि आप इसमें अनुलोम-विलोम प्राणायाम भी जोड़ देते हैं तो यह एक तरह से आपके भीतर के अंगों और सूक्ष्म नाड़ियों को शुद्ध-पुष्ट कर देगा। जब भी मौका मिले, प्राणायाम को अच्‍छे से सीखकर करें।

(5) ध्यान : ध्यान के बारे में भी आजकल सभी जानने लगे हैं। ध्यान हमारी ऊर्जा को फिर से संचित करने का कार्य करता है, इसलिए सिर्फ पाँच मिनट का ध्यान आप कहीं भी कर सकते हैं। खासकर सोते और उठते समय इसे बिस्तर पर ही किसी भी सुखासन में किया जा सकता है।

उपरोक्त पाँच उपाय आपके जीवन को बदलने की क्षमता रखते हैं, बशर्ते आप इन्हें ईमानदारी से नियमित करें।

सहज योग

शायद आपने सोचा भी न हो कि दौड़ना भी एक ध्यान हो सकता है, लेकिन दौड़ने वाले को कई बार ध्यान के अपूर्व अनुभव हुए हैं और वे चकित हुए, क्योंकि इसकी तो वे खोज भी नहीं कर रहे थे। कौन सोचता है कि कोई दौड़ने वाला परमात्मा का अनुभव कर लेगा? परंतु ऐसा हुआ है। और अब तो दौड़ना एक नए प्रकार का ध्यान बनता जा रहा है। जब दौड़ रहे हों तो ऐसा हो सकता है।

यदि आप कभी एक दौड़ाक रहे हों, यदि आपने सुबह-सुबह दौड़ने का आनंद लिया हो जब हवा ताजी हो और सारा विश्‍व नींद से लौटता हो, जागता हो- आप दौड़ रहे हों और आपका शरीर सुंदर रूप से गति कर रहा हो; ताजी हवा रात के अंधकार से गुजरकर जन्मा नया संसार- जैसे हर चीज गीत गाती हो- आप बहुत जीवंत अनुभव करते हो...एक क्षण आता है जब दौड़ने वाला विलीन हो जाता है और बस दौड़ना ही बचता है। शरीर, मन और आत्मा एक साथ कार्य करने लगते हैं; अचानक एक आंतरिक आनंदोन्माद का आविर्भाव होता है।

दौड़ाक कई बार संयोग से चौथे के, तुरीय के अनुभव से गुजर जाते हैं, यद्यपि वे उसे चूक जाएँगे- वे सोचेंगे कि शायद दौड़ने के कारण ही उन्होंने इस क्षण का आनंद लिया- कि प्यारा दिन था, शरीर स्वस्थ था और संसार सुंदर, और यह अनुभव एक भावदशा मात्र थी। वे उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देते- परंतु वे ध्यान दें, तो मेरी अपनी समझ है कि एक दौड़ाक किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा ‍अधिक सरलता से ध्यान के करीब आ सकता है।

'जॉगिंग' (लयबद्ध धीरे-धीरे दौड़ना) अपूर्व रूप से सहयोगी हो सकती है, तैरना बहुत सहयोगी हो सकता है। इन सब चीजों को ध्यान में रूपांतरित कर लेना है।

ध्यान की पुरानी धारणा को छोड़ दें कि किसी वृक्ष के नीचे योग-मुद्रा में बैठना ही ध्यान है। वह तो बहुत से उपायों में से एक उपाय है और हो सकता है वह कुछ लोगों के लिए उपयुक्त हो, लेकिन सबके लिए उपयुक्त नहीं है। एक छोटे बच्चे के लिए यह ध्यान नहीं, उत्पीड़न है। एक युवा व्यक्ति जो जीवंत और स्पंदित है, उसके लिए यह दमन होगा ध्यान नहीं।

सुबह सड़क पर दौड़ना शुरू करें। आधा मील से शुरू करें और फिर एक मील करें और अंतत: कम से कम तीन मील तक आ जाएँ। दौड़ते समय पूरे शरीर का उपयोग करें; ऐसे न दौड़ें जैसे कसे कपड़े पहने हुए हों। छोटे बच्चे की तरह दौड़ें, पूरे शरीर का- हाथों और पैरों का- उपयोग करें और दौड़ें। पेट से गहरी श्वास लें। फिर किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाएँ, विश्राम करें, पसीना बहने दें और शीतल हवा लगने दें; शांत अनुभव करें। यह बहुत गहन रूप से सहयोगी होगा।

कभी-कभी बिना जूते-चप्पल पहने नंगे पाँव जमीन पर ही खड़े हो जाएँ और शीतलता को, कोमलता को, उष्मा को महसूस करें। उस क्षण में पृथ्वी जो कुछ भी देने को तैयार है, उसे अनुभव करें और अपने में बहने दें। पृथ्‍वी के साथ जुड़ जाएँ।

यदि आप पृथ्वी से जुड़ गए, तो जीवन से जुड़ गए। यदि आप पृथ्‍वी से जुड़ गए, तो अपने शरीर से जुड़ गए। यदि आप पृथ्‍वी से जुड़ गए, तो बहुत संवेदनशील और केंद्रस्थ हो जाएँगे। और यही तो चाहिए।

दौड़ने में कभी भी विशेषज्ञ न बनें; नौसिखिए ही बने रहें, ताकि सजगता रखी जा सके। जब कभी आपको लगे कि दौड़ना यंत्रवत हो गया है, तो उसे छोड़ दें; फिर तैरकर देखो। यदि वह भी यंत्रवत हो जाए, तो नृत्य को लो। यह बात याद रखने की है कि कृत्य मात्र एक परिस्थिति है कि जागरण पैदा हो सके। जब तक वह जागरण निर्मित करे तब तक ठीक है। जब वह जागरण पैदा करना बंद कर दे तो किसी काम का न रहा; किसी और कृत्य को पकड़ो जहाँ आपको फिर से सजग होना पड़े। किसी भी कृत्य को यंत्रवत मत होने दो।

योग फॉर फिटनेस नही फॉर ब्यूटी

दुनिया की हर औरत अपने आपको हमेशा सुंदर दिखाना चाहती है। इसी कोशिश में वह कृत्रिम उपाय भी अपनाती है। इसमें मेकअप करने से लेकर बाल रंगने तक कई उपाय शामिल हैं। इन सब उपायों का असर लंबे समय तक नहीं टिक पाता है। योगासन और प्राकृतिक चिकित्सा दो ऐसे साधन हैं जिनके जरिए महिलाएँ उम्रदराज होने पर भी सुंदर लग सकती हैं।

क्या करें : योगासन के लिए रोज 20-25 मिनट जरूर निकालें। इससे त्वचा की झुर्रियों के साथ पेट की थुलथुल चर्बी से भी मुक्ति मिल सकेगी। मुलायम और चमकदार त्वचा पाने के लिए सीधे खड़े हो कर दोनों हथेलियों से चेहरे को ढँक लीजिए। गहरी साँसें लीजिए। चंद मिनटों के बाद उँगलियों की पोरों से ठोड़ी से लेकर माथे तक मालिश करिए। यह कसरत कम से कम तीन बार कीजिए। इसी के साथ कपालभाति एवं अनुलोम विलोम भी कर लें।

सुडौल गरदन : पैरों को पास में रखकर खड़े हो जाइए। चेहरे को पीछे की ओर मोड़कर जितना पीछे जा सकते हों जाएँ। थोड़ी देर इसी अवस्था में रुकें। अब ठोड़ी को छाती की हड्डी पर गले के नीचे चिपका दें। यदि चिपकाना संभव न हो तब भी कोशिश करते रहें। सीधे खड़े रहें और कंधों को बिना हिलाए सिर को दोनों साइड में झुकाएँ। कोशिश करें कि सिर को कंधे पर टिका सकें। ऐसा दोनों ओर करें। इस आसन को कम से कम 20 बार करें। इस आसन के बाद गरदन को दोनों तरफ तेजी से 10 बार झटकें।

अपने पैरों को थोड़ा फैलाकर खड़े हो जाएँ। हाथों को कमर पर रखें। गहरी साँस लेते हुए जोर से छोड़ें। यह कसरत बारी-बारी से 40-40 के सेट में करें। इसे बढ़ाते हुए 100 तक ले जा सकते हैं। पैरों को सामने की ओर फैलाकर बैठ जाएँ। हाथों को बारी-बारी से उपर उठाएँ और नीचे ले जाएँ। इसे इस तरह करें मानो कोई रस्सी खींच रहे हों। यह कसरत 50 से शुरू करके धीरे-धीरे बढ़ाते रहें।

अब पैरों पर बैठ जाएँ और दोनों घुटनों में अंतर रखते हुए हाथों की उँगलियों को आपस में फँसाते हुए सामने की ओर फैला लें। हाथों को इस तरह ऊपर-नीचे करें मानों कोई लकड़ी काट रहे हों। ऐसा 20 बार करें।

पेट की थुलथुल चर्बी : अपने पैरों को फैलाकर खड़े हो जाएँ। आगे की ओर बिना घुटना मोड़े पैरों की उँगलियों को हाथ की उँगलियों की पोरों से पकड़ने की कोशिश करें। संभव है कि पहली बार आप ऐसा नहीं कर पाएँ लेकिन रोज कोशिश करेंगे तो शायद एक दिन कर पाएँ। रोजाना 10-10 के सेट में दो बार करें।

पैरों को दो फुट की दूरी तक फैला लें और शरीर को आगे की ओर 90 डिग्री के कोण बनाते हुए झुका लें। अब सीधे हाथ की उँगलियों से बाएँ पैर की उँगलियों को स्पर्श करने का प्रयत्न करें। दोनों ओर इसे कम से कम 20 बार करें।

जमीन पर सीधे लेट जाएँ। पैरों को पास में रखें। अब पैरों को बिना घुटने मोड़े ऊपर उठाने का प्रयत्न करें। इसी तरह सिर को धड़ सहित ऊपर उठाने की कोशिश करें। इस तरह शरीर की आकृति एक नाव की तरह हो जाएगी। नौका जैसी आकृति बनाते हुए एक मिनट तक रुकें। इसके अलावा पेट की चर्बी गलाने के लिए आप पश्चिमोत्तान आसन कर सकते हैं। पवनमुक्तासन, भुजंगासन, धनुर्रासन आसानी से कर सकते हैं।

सुडौल कमर : नाजुक या सुडौल कमर पाना हर महिला का ऐसा सपना है जो कम ही पूरा होता है। कमर का घेरा कम तब ही लगता है जब पेट की अनावश्यक चर्बी खत्म हो जाती है। आप चाहें तो इन आसनों को आजमा सकती हैं।

पैरों को एक फुट की दूरी बनाते हुए खड़ी हो जाएँ। हाथों को साइड में जमीन के समानांतर कंधों की ऊँचाई तक फैला लें। अब शरीर के उपरी हिस्से को बाईं ओर जितना मोड़ सकते हों मोड़ लें तथा पीछे की ओर देखें। ध्यान रखें कि पैर जमीन पर टिके रहें। ऐसा ही दूसरी तरफ भी करें। दस से बीस बार ऐसा करें।

दोनों पैरों को फैलाकर खड़े रहें। कमर पर हाथ रख लें। आगे की ओर झुकते हुए जंघाओं को स्पर्श करने की कोशिश करें। तीन बार से शुरू करके आगे बढ़ा सकती हैं।

जरूरी है मन की सुंदरता : मन की सुंदरता तभी प्राप्त होती है जब मन शांत हो। मस्तिष्क प्रिय विचारों से गदगद हो। तनाव जितना कम होगा उतना चेहरे पर खिंचाव नहीं दिखाई देगा। अनुलोम विलोम, कपालभाती तथा श्वास की कसरतें दम-खम तो देंगी ही साथ ही सुंदर भी बना देंगी।

सच बयाँ करती कविता

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी´
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था

भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´
`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
`मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो´
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

´´ कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं ´´
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
`कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल´
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए

अपनी लड़ाई ख़ुद लड़नी पड़ती है

जिंदगी की इस धारा में
किस किसकी नाव पार लगाओगे।
समंदर से गहरी है इसकी धारा
लहरे इतनी ऊंची कि
आकाश का भी तोड़ दे तारा
अपनी सोच को इस किनारे से
उस किनारे तक ले जाते हुए
स्वयं ही ख्यालों में डूब जाओगे।
दूसरे को मझधार से तभी तो निकाल सकते हो
जब पहले अपनी नाव संभाल पाओगे।
दूर उठती लहरें देखकर
खेलने का मन करता है
पर उनकी ताकत तभी समझ आयेगी
जब उनसे लड़ने जाओगे।

यहाँ सब कुछ बिकता है

दिन के उजाले में

लगता है बाजार

कहीं शय तो कहीं आदमी

बिक जाता है

पैसा हो जेब में तो

आदमी ही खरीददार हो जाता है

चारों तरफ फैला शोर

कोई किसकी सुन पाता है

कोई खड़ा बाजार में खरीददार बनकर

कोई बिकने के इंतजार में बेसब्र हो जाता है

भीड़ में आदमी ढूंढता है सुख

सौदे में अपना देखता अस्त्तिव

भ्रम से भला कौन मुक्त हो पाता है

रात की खामोशी में भी डरता है

वह आदमी जो

दिन में बिकता है

या खरीदकर आता है सौदे में किसी का ईमान

दिन के दृश्य रात को भी सताते हैं

अपने पाप से रंगे हाथ

अंधेरे में भी चमकते नजर आते है

मयस्सर होती है जिंदगी उन्हीं को

जो न खरीददार हैं न बिकाऊ

सौदे से पर आजाद होकर जीना

जिसके नसीब में है

वह जिंदगी का मतलब समझ पाता है
…………………………..

रोटी

पापी पेट का है सवाल
इसलिये रोटी पर मचा रहता है
इस दुनियां में हमेशा बवाल
थाली में रोटी सजती हैं
तो फिर चाहिये मक्खनी दाल
नाक तक रोटी भर जाये
फिर उठता है अगले वक्त की रोटी का सवाल
पेट भरकर फिर खाली हो जाता है
रोटी का थाल फिर सजकर आता है
पर रोटी से इंसान का दिल कभी नहीं भरा
यही है एक कमाल
………………………
रोटी का इंसान से
बहुत गहरा है रिश्ता
जीवन भर रोटी की जुगाड़ में
घर से काम
और काम से घर की
दौड़ में हमेशा पिसता
हर सांस में बसी है उसके ख्वाहिशों
से जकड़ जाता है
जैसे चुंबक की तरफ
लोहा खिंचता

कुण्डलिनी योग

कुंडलीनी के चक्र :
कुंडलिनी शक्ति समस्त ब्रह्मांड में परिव्याप्त सार्वभौमिक शक्ति है जो प्रसुप्तावस्था में प्रत्येक जीव में विद्यमान रहती है। इसको प्रतीक रूप से साढ़े तीन कुंडल लगाए सर्प जो मूलाधार चक्र में सो रहा है के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है।

तीन कुंडल प्रकृति के तीन गुणों के परिचायक हैं। ये हैं सत्व (परिशुद्धता), रजस (क्रियाशीतता और वासना) तथा तमस (जड़ता और अंधकार)। अर्द्ध कुंडल इन गुणों के प्रभाव (विकृति) का परिचायक है।

कुंडलिनी योग के अभ्यास से सुप्त कुंडलिनी को जाग्रत कर इसे सुषम्ना में स्थित चक्रों का भेंदन कराते हुए सहस्रार तक ले जाया जाता है।

नाड़ी : नाड़ी सूक्ष्म शरीर की वाहिकाएँ हैं जिनसे होकर प्राणों का प्रवाह होता है। इन्हें खुली आँखों से नहीं देखा जा सकता। परंतु ये अंत:प्राज्ञिक दृष्टि से देखी जा सकती हैं। कुल मिलाकर बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं जिनमें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना सबसे महत्वपूर्ण हैं।

इड़ा और पिंगला नाड़ी मेरुदंड के दोनों ओर स्थित sympathetic और para sympathetic system के तद्नुरूप हैं। इड़ा का प्रवाह बाई नासिका से होता है तथा इसकी प्रकृति शीतल है। पिंगला दाहिनी नासिका से प्रवाहित होती है तथा इसकी प्रकृति गरम है। इड़ा में तमस की प्रबलता होती है, जबकि पिंगला में रजस प्रभावशाली होता है। इड़ा का अधिष्ठाता देवता चंद्रमा और पिंगला का सूर्य है।

यदि आप ध्यान से अपनी श्वांस का अवलोकन करेंगे तो पाएँगे कि कभी बाई नासिका से श्वांस चलता है तो कभी दाहिनी नासिका से और कभी-कभी दोनों नासिकाओं से श्वांस का प्रावाह चलता रहता है। इंड़ा नाड़ी जब क्रियाशील रहती है तो श्‍वांस बाई नासिका से प्रवाहित होता है। उस समय व्यक्ति को साधारण कार्य करना चाहिए। शांत चित्त से जो सहज कार्य किए किए जा सकते हैं उन्हीं में उस समय व्यक्ति को लगना चाहिए।

दाहिनीं नासिका से जब श्वांस चलती है तो उस समय पिंगला नाड़ी क्रियाशील रहती है। उस समय व्यक्ति को कठिन कार्य- जैसे व्यायाम, खाना, स्नान और परिश्रम वाले कार्य करना चाहिए। इसी समय सोना भी चाहिए। क्योंकि पिंगला की क्रियाशीलता में भोजन शीघ्र पचता है और गहरी नींद आती है।

स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने, रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से साँस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।

सुषुम्ना नाड़ी : सभी नाड़ियों में श्रेष्ठ सुषुम्ना नाड़ी है। मूलाधार (Basal plexus) से आरंभ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं। इड़ा को गंगा, पिंगला को यमुना और सुषुम्ना को सरस्वती कहा गया है।

इन तीन ना‍ड़ियों का पहला मिलन केंद्र मूलाधार कहलाता है। इसलिए मूलाधार को मुक्तत्रिवेणी (जहाँ से तीनों अलग-अलग होती हैं) और आज्ञाचक्र को युक्त त्रिवेणी (जहाँ तीनों आपस में मिल जाती हैं) कहते हैं।

चक्र : मेरुरज्जु (spinal card) में प्राणों के प्रवाह के लिए सूक्ष्म नाड़ी है जिसे सुषुम्ना कहा गया है। इसमें अनेक केंद्र हैं। जिसे चक्र अथवा पदम कहा जाता है। कई ना‍ड़ियों के एक स्थान पर मिलने से इन चक्रों अथवा केंद्रों का निर्माण होता है। गुह्य रूप से इसे कमल के रूप में चित्रित किया गया है जिसमें अनेक दल हैं। ये दल एक नाड़ी विशेष के परिचायक हैं तथा इनका अपना एक विशिष्ट स्पंदन होता है जिसे एक विशेष बीजाक्षर के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है।

इस प्रकार प्रत्येक चक्र में दलों की एक निश्चित संख्‍या, विशिष्ट रंग, इष्ट देवता, तन्मात्रा (सूक्ष्मतत्व) और स्पंदन का प्रतिनिधित्व करने वाला एक बीजाक्षर हुआ करता है। कुंडलिनी जब चक्रों का भेदन करती है तो उस में शक्ति का संचार हो उठता है, मानों कमल पुष्प प्रस्फुटित हो गया और उस चक्र की गुप्त शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं।

(नोट :- मूलत: सात चक्र होते हैं:- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार)

कुंडलिनी योग का अभ्यास :
सेवा और भक्ति के द्वारा साधक को सर्वप्रथम अपनी चित्तशुद्धि करनी चाहिए। आसन, प्राणायाम, बंध, मुद्रा और हठयोग की क्रियाओं के अभ्यास से नाड़ी शुद्धि करना भी आवश्यक है। साधक को श्रद्धा, भक्ति, गुरुसेवा, विनम्रता, शुद्धता, अनासक्ति, करुणा, प्रेरणा, विवेक, मानसिक ‍शांति, आत्मसंयम, निर्भरता, धैर्य और संलग्नता जैसे सद्गुणों का विकास करना चाहिए।

उसे एक के बाद दूसरे चक्र पर ध्यान करना आवश्यक है। जैसा कि पूर्व पृष्ठों में बताया गया है उसे एक सप्ताह तक मूलाधारचक्र और फिर एक सप्ताह तक क्रमश: स्वाधिष्ठान इत्यादि चक्रों पर ध्यान करना चाहिए।

विभिन्न विधियाँ : कुंडलिनी जागरण की विभिन्न विधियाँ हैं। राजयोग में ध्यान-धारणा के द्वारा कुंडलिनी जाग्रत होती है, जब कि भक्त से, ज्ञानी, चिंतन, मनन और ज्ञान से तथा कर्मयोगी मानवता की नि:स्वार्थ सेवा से कुंडलिनी जागरण करता है।

कुंडलिनी अध्यात्मिक प्रगति मापने का बैरोमीटर है। साधना का चाहे कोई मार्ग क्यों न हो, कुंडलिनी अवश्य जाग्रत होती है। साधना में प्रगति के साध कुंडलिनी सुषम्ना नाड़ी में अवश्य चढ़ती है।

कुंडलिनी का सुषुम्ना में ऊपर चढ़ने का अर्थ है चेतना में अधिकाधिक विस्तार। प्रत्येक केंद्र प्रयोगी को प्रकृति के किसी न किसी पक्ष पर नियंत्रण प्रदान करता है। उसे शक्ति और आनंद की प्राप्ति होती है।

कुंडलिनी जागरण के लिए कुंडलिनी प्राणायाम, अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध होते हैं। कुंडलिनी जब मूलाधार का भेदन करती है तो व्यक्ति अपने निम्नस्वरूप से ऊपर उठ जाता है। अनाहत चक्र के भेदन से योगी वासनाओं (सूक्ष्म कामना) से मुक्त हो जाता है और जब कुंडलिनी आज्ञाचक्र का भेदन कर लेती है तो योगी को आत्मज्ञान हो जाता है। उसे परमानंद अनुभव होता है।

योग क्या है कैसे करे क्या करे

प्राणायाम के बारे में सभी ने सुना और प्राणायाम की विधि व लाभ के बारे में पढ़ा भी है, लेकिन प्राणायाम कैसे करते हैं, इसकी प्रक्रिया क्या है तथा यह किस तरह से लाभ पहुँचाता है, यह कम ही पढ़ने को मिला होगा। थ्‍योरी और प्रेक्टीकल अर्थात सिद्धांत और प्रायोग- इन दोनों के ‍बीच भी कुछ चीजें होती है, जिन्हें हम प्राणायाम की पूर्व तैयारी भी नहीं कह सकते, बल्कि कहेंगे की कुछ ऐसी बातें जिससे थ्योरी को समझने तथा प्रेक्टीकल को करने में आसानी हो।

शरीर में स्थित वायु प्राण है। प्राण एक शक्ति है, जो शरीर में चेतना का निर्माण करती है। हम एक दिन भोजन नहीं करेंगे तो चलेगा। पानी नहीं पीएँगे तो चलेगा, लेकिन सोचे क्या आप एक दिन साँस लेना छोड़ सकते हैं? साँस की तो हमें हर पल जरूरत होती है।

जाँच-परख कर ही हम भोजन का सेवन करते हैं। जल का सेवन करते वक्त भी हम उसके साफपन की जाँच कर ही लेते हैं, लेकिन क्या आप हवा की जाँच-परख करने के बाद ही साँस लेते हैं? पूरे भारत देश के शहरों की हवाओं में जहर घुला हुआ है और इस पर आप कभी कोई आपत्ति नहीं लेते, खैर।

हम जब साँस लेते हैं तो भीतर जा रही हवा या वायु पाँच भागों में विभक्त हो जाती है या कहें कि वह शरीर के भीतर पाँच जगह स्थिर हो जाता हैं। ये पंचक निम्न हैं- (1) व्यान, (2) समान, (3) अपान, (4) उदान और (5) प्राण।

उक्त सभी को मिलाकर ही चेतना में जागरण आता है, स्मृतियाँ सुरक्षित रहती है। मन संचालित होता रहता है तथा शरीर का रक्षण व क्षरण होता रहता है। उक्त में से एक भी जगह दिक्कत है तो सभी जगह उससे प्रभावित होती है और इसी से शरीर, मन तथा चेतना भी रोग और शोक से ‍घिर जाते हैं। चरबी-माँस, आँत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायुतंत्र और खून आदि सभी प्राणायाम से शुद्ध और पुष्ट रहते हैं।

(1) व्यान : व्यान का अर्थ जो चरबी तथा माँस का कार्य करती है।
(2) समान : समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता भी है।
(3) अपान : अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
(4) उदान : उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में होती है।
(5) प्राण : प्राण हमारे शरीर का हालचाल बताती है। यह वायु मूलत: खून में होती है।

जब हम साँस लेते हैं तो वायु प्रत्यक्ष रूप से हमें तीन-चार स्थानों पर महसूस होती है। कंठ, हृदय, फेंफड़े और पेट। मस्तिष्क में गई हुई वायु का हमें पता नहीं चलता। कान और आँख में गई वायु का भी कम ही पता चलता है। श्वसन तंत्र से भीतर गई वायु अनेकों प्रकार से विभाजित हो जाती है, जो अलग-अलग क्षेत्र में जाकर अपना-अपना कार्य करके पुन: भिन्न रूप में बाहर निकल आती है। यह सब इतनी जल्दी होता है कि हमें इसका पता ही नहीं चल पाता।

हम सिर्फ इनता ही जानते हैं कि ऑक्सिजन भीतर गई और कार्बनडॉय ऑक्सॉइड बाहर निकल आई, लेकिन भीतर वह क्या-क्या सही या गलत करके आ जाती है इसका कम ही ज्ञान हो पाता है। सोचे ऑक्सिजन कितनी शुद्ध थी। शुद्ध थी तो अच्‍छी बात है वह हमारे भीतरी अंगो को भी शुद्ध और पुष्ट करके सारे जहरीले पदार्थ को बारह निकालने की प्रक्रिया को सही कर के आ जाएगी।

यदि हम जोर से साँस लेते हैं तो तेज प्रवाह से बैक्टीरियाँ नष्ट होने लगते हैं। कोशिकाओं की रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है 'बोन मेरो' में नए रक्त का निर्माण होने लगता है। आँतों में जमा मल विसर्जित होने लगता है। मस्तिष्क में जाग्रति लौट आती है जिससे स्मरण शक्ति दुरुस्त हो जाती है।

न्यूरॉन की सक्रियता से सोचने समझने की क्षमता पुन: जिंदा हो जाती है। फेंफड़ों में भरी-भरी हवा से आत्मविश्वास लौट आता है। सोचे जब जंगल में हवा का एक तेज झोंका आता है तो जंगल का रोम-रोम जाग्रत होकर सजग हो जाता है। ‍सिर्फ एक झोंका।

कपालभाती या भस्त्रिका प्राणायाम तेज हवा के अनेकों झोंके जैसा है। बहुत कम लोगों में क्षमता होती है आँधी लाने की। लगातार अभ्यास से ही आँधी का जन्म होता है। दस मिनट की आँधी आपके शरीर और मन के साथ आपके संपूर्ण जीवन को बदलकर रख देगी। हृदय रोग या फेंफड़ों का कोई रोग है तो यह कतई न करें।

प्राण+आयाम अर्थात प्राणायाम। प्राण का अर्थ है शरीर के अंदर नाभि, हृदय और मस्तिष्क आदि में स्थित वायु जो सभी अंगों को चलायमान रखती है। आयाम के तीन अर्थ है प्रथम दिशा और द्वितीय योगानुसार नियंत्रण या रोकना, तृतीय- विस्तार या लम्बायमान होना। प्राणों को ठीक-ठीक गति और आयाम दें, यही प्राणायाम है।

लोगों की साँसें उखड़ी-उखड़ी रहती है, अराजक रहती है या फिर तेजी से चलती रहती है। उन्हें पता ही नहीं चलता की कैसे चलती रहती है। क्रोध का भाव उठा तो साँसे बदल जाती है। काम वासना का भाव उठा तब साँसे बदल जाती है। प्रत्येक भाव और विचार से तो साँसे बदलती ही है, लेकिन हमारे खान-पान, रहन-सहन से भी यह बदलती रहती है। अभी तो साँसें निर्भर है उक्त सभी की गति पर, लेकिन प्रणायाम करने वालों की साँसे स्वतंत्र होती है। गहरी और आनंददायक होती है।

प्राणायाम करते समय तीन क्रियाएँ करते हैं- 1. पूरक 2. कुम्भक 3. रेचक। इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं।

(1) पूरक:- अर्थात नियंत्रित गति से श्वास अंदर लेने की क्रिया को पूरक कहते हैं। श्वास धीरे-धीरे या तेजी से दोनों ही तरीके से जब भीतर खिंचते हैं तो उसमें लय और अनुपात का होना आवश्यक है।

(2) कुम्भक:- अंदर की हुई श्वास को क्षमतानुसार रोककर रखने की क्रिया को कुम्भक कहते हैं। श्वास को अंदर रोकने की क्रिया को आंतरिक कुंभक और श्वास को बाहर छोड़क पुन: नहीं लेकर कुछ देर रुकने की क्रिया को बाहरी कुंभक कहते हैं। इसमें भी लय और अनुपात का होना आवश्यक है।

(3) रेचक:- अंदर ली हुई श्वास को नियंत्रित गति से छोड़ने की क्रिया को रेचक कहते हैं। श्वास धीरे-धीरे या तेजी से दोनों ही तरीके से जब छोड़ते हैं तो उसमें लय और अनुपात का होना आवश्यक है।

योग के प्रकार

वैसे तो अष्टांग योग में योग के सभी आयामों का समावेश हो जाता है किंतु जो कोई योग के अन्य मार्ग से स्वस्थ, साधना या मोक्ष लाभ लेना चाहे तो ले सकता है। योग के मुख्यत: छह प्रकार माने गए है। छह प्रकार के अलग-अलग उपप्रकार भी हैं।

यह प्रकार हैं:- (1) राजयोग, (2) हठयोग, (3) लययोग, (4) ज्ञानयोग, (5) कर्मयोग और (6) भक्तियोग। इसके अलावा बहिरंग योग, मंत्र योग, कुंडलिनी योग और स्वर योग आदि योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है, लेकिन मुख्यत: तो उपरोक्त छह योग ही माने गए हैं।

(1) राजयोग :- यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह पतंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं। इन्हें अष्टांग योग भी कहा जाता है।

(2) हठयोग :- षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि- ये हठयोग के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है।

(3) लययोग :- यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।

(4) ज्ञानयोग :- साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।

(5) कर्मयोग :- कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्‍येश्य है कर्मों में कुशलता लाना। यही सहज योग है।

(6) भक्तियोग :- भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप- इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति अपनी रुचि, प्रकृति, साधना की योग्यतानुसार इनका चयन कर सकता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।

इस तरह हम ऊपर योग के आयामों को संक्षिप्त रूप से लिख आएँ हैं। इसके अलावा, ध्यानयोग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, मंत्रयोग और तंत्रयोग आदि अनेक योगों की भी चर्चा की जाती है, किंतु उक्त छह योगांग के अंतर्गत सभी तरह के योग का समावेश हो जाता है।

असली नकली का भेद

सोलोमन के ज्ञान के चर्चे चारों ओर थे। एक बार ईथोपिया की रानी उसकी परीक्षा लेने गई क्योंकि उसने सुन रखा था कि सोलोमन पृथ्वी पर उस समय सर्वाधिक ज्ञानी व्यक्ति हैं। रानी ने एक हाथ में नकली फूल लिए, जो बड़े कलाकारों से बनवाए गए थे और दूसरे हाथ में असली फूल लिए। नकली फूल इतने सुंदर बने थे कि असली को मात कर दें। वह दोनों फूल लेकर सोलोमन के दरबार में पहुंची।

सोलोमन से थोड़ी दूर खड़े होकर उसने कहा कि ‘सोलोमन, मैंने सुना है कि आप पृथ्वी पर सबसे बड़े ज्ञानी व्यक्ति हैं। ज़रा मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिए। मेरे किस हाथ में असली फूल है और किस हाथ में नकली?’

सोलोमन भी हैरान हुआ। दोनों फूलों को देखकर असली-नकली की पहचान कर पाना मुश्किल था। सोलोमन काफी भ्रमित था। उसने जल्दी करना ठीक नहीं समझा। उसने कहा कि ‘थोड़ा अंधेरा है और मैं भी बूढ़ा हो गया हूं, ज़रा सब खिड़की-दरवाज़े खोल दो ताकि रोशनी आए और मैं ठीक से देख सकूं।’ सभी खिड़की-दरवाज़े खोल दिए गए। सोलोमन थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, ‘रानी, आपके बाएं हाथ में मौजूद फूल असली हैं।’

ईथोपिया की रानी हैरान हुई। उनके वज़ीर भी हैरान हुए। दरबारी भी पहचान नहीं पाए थे, सो उन्होंने सोलोमन से पूछा कि ‘आपने कैसे पहचाना? हम भी देख रहे थे, लेकिन रोशनी के बावजूद भी नहीं पहचान सके ।’

सोलोमन ने जवाब दिया, ‘मैंने नहीं पहचाना। मैं तो सिर्फ राह देखता रहा कि कोई मधुमक्खी भीतर आ जाए। और एक मधुमक्खी खिड़की से भीतर आ गई। अब मधुमक्खी को धोखा नहीं दिया जा सकता, चाहे कितने ही बड़े चित्रकारों ने फूल बनाए हों। मधुमक्खी जिस फूल पर बैठ गई, वही फूल असली हैं।’ सच है, जो असली है उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं, लेकिन असली से ज्यादा असली दिखने वाला ही नकली होगा, यह पहचानना हमको ही है।

पत्थर

मैं शिलान्यास का पत्थर हूं। पत्थर कभी रोते नहीं। मगर मैं रो रहा हूं। कारण, मैं ऐसा-वैसा नहीं, एक महत्वपूर्ण पत्थर हूं। महत्वपूर्ण हो जाने के बाद बहुतों को रोना पड़ता है। हे कृपानिधान, तू मुझे साधारण पत्थर ही रहने देता, तो तेरा क्या बिगड़ जाता? मैंने कब चाहा था कि तू मुझे अपनी इबादतगाह में चुने जाने का सौभाग्य प्रदान करे।

मैं वीआईपी पत्थर नहीं बनना चाहता था प्रभु। लेकिन तूने बना दिया। अब मुझको इस वीआईपीयत का संत्रास ताउम्र झेलना ही होगा। झेल रहा हूं। तू भी कैसे-कैसे खेल खेलता है लीलाधारी? जो किसी धोबी का पाट नहीं बन सकता था, उसे तूने शिलान्यास का पत्थर बना डाला। तूने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा गिरधारी। और जहां लाकर पटका है, वहां की मिट्टी तक मुझसे नफरत करती है।

मैं तीन फीट बाहर और दो फीट अंदर गड़ा हूं। चतुर्दिक झाड़-झंखाड़ उग आए हैं। हवा चलती है, तो झाड़ियां मेरे तन-बदन पर झापड़ मारती हैं। मैं चोट खा-खाकर काला पड़ गया हूं। मैं अहर्निश अपने दुश्मनों से घिरा हुआ हूं। उनकी ऊंचाइयां बढ़ती जा रही हैं। हो सकता है, एक दिन ऐसा भी आए, जब मैं दिखलाई देना बंद हो जाऊं। और मैं दोष भी किसे दूं? जब मुझे रोपने वाले उन कर-कमलों ने ही मुझे बिसार दिया, तब गैरों से काहे का गिला-शिकवा? कुछ तो आचार संहिता की मजबूरियां रही होंगी, यूं कोई बेवफा नहीं होता। जरूर उन कर-कमलों पर कोई विपदा आन पड़ी होगी। उनका खुद का वीआईपीपन गुम हो चुका होगा। वरना जिसने मेरा शिलान्यास किया, मेरा अनावरण किया, वह शतिर्या एक-न-एक रोज मेरा उद्घाटन करने भी आता।

एक शिला की नियति भी क्या? उसे अहिल्या की मानिंद शताब्दियों प्रतीक्षा के बाद राम की चरण-धूलि मयस्सर होती है। यहां तो मैं उनके पांवों की बाट जोह रहा हूं, जिन्होंने पहली बार शिलान्यास का पत्थर बनने के बाद मुझे हाथ लगाया था। काश, वे मिल जाते तो गले से लिपटकर पूछता -हे सहोदर, कहां चले गए थे आप?

मुझमें और आप में फर्क ही क्या है? लोगबाग आपको भी पत्थर ही समझते हैं। वह और बात है कि आप पूजे जाने वाले पत्थर हैं। आप पर मालाएं चढ़ाई जाती हैं। जनता आपकी परिक्रमा करती है। और एक मैं हूं कि राह चलते कोई भूला-भटका स्वामिभक्त जानवर भी अपना जल चढ़ाने नहीं आता। हे जग के उद्धारकरैया, मेरी सुध कब लोगे?

मैं जहां पर गड़ा हूं, किसी समय यहां से एक राह गुजरती थी। अब पगडंडी रह गई है। गाहे-बगाहे पास के गांवों के बटोही इधर से गुजरते हैं। मैं हसरत भरी निगाहों से उन्हें ताकता हूं। वे मुझे घूरते तक नहीं। गलती से किसी की नजर पड़ जाती है, तो वह हंसकर बगल वाले राहगीर से कहता है -'वह देखो, सत्यानाश का पत्थर।' शिलान्यास की जगह पर सत्यानाश सुनकर मेरे दिल पर क्या गुजरती होगी, जो कभी मेरी राह से गुजरा होगा, वह भी ठीक से नहीं समझ सकता।

काश, मैं शिलान्यास का पत्थर बनने की जगह पर किसी सिल-बट्टे का पत्थर होता! तमाम स्वादिष्ट चटनियों के मजे उठाता। काश, मैं किसी बाथरूम में जड़ा गया होता। कम-से-कम पानी-पानी तो हो रहा होता। तबीयत तर रहती। एक अंधेरी रात में, मेरे सामने बैठकर ढेर सारे चोरों ने लूट के माल का बंटवारा किया। तब मुझे बहुत अच्छा लगा था। मेरी सोहबत किसी के काम तो आई। उस रोज मुझे मेरा भविष्य अंधेरे में भी साफ-साफ नजर आने लगा था। सोचने लगा, चाहे मुझे यहीं रखा जाए या उखाड़कर किसी और जगह पर जड़ दिया जाए, मेरे इर्द-गिर्द जो भी निर्माण होगा, वहां पर चोरों का जमघट लगेगा। तब वे दिन दहाड़े लूट के माल का बंटवारा किया करेंगे।

कल की बात है। दो लोगों ने एकाएक मेरी तरफ हसरत भरी निगाहों से देखा। मैं उनकी नीयत ताड़ गया। समझ गया, चुनावों के दिन हैं। वे उम्मीदवार थे। मुझे अपना चुनावी मुद्दा बनाने वाले थे। जय हो। इसी बहाने मैं इस लोकतंत्र के काम आ सकूंगा। मुझे मालूम है, अब पत्थर ही लोकतंत्र के काम आते हैं। चाहे वे हाथों में हों, या फिर शिलान्यास के बहाने जमीन में गड़े हुए हों।

छठी इन्द्रिय कैसे जगाये

छठी इंद्री को अंग्रेजी में सिक्स्थ सेंस कहते हैं। सिक्स्थ सेंस को जाग्रत करने के लिए योग में अनेक उपाय बताए गए हैं। इसे परामनोविज्ञान का विषय भी माना जाता है। असल में यह संवेदी बोध का मामला है। गहरे ध्यान प्रयोग से यह स्वत: ही जाग्रत हो जाती है।

कहते हैं कि पाँच इंद्रियाँ होती हैं- नेत्र, नाक, जीभ, कान और यौन। इसी को दृश्य, सुगंध, स्वाद, श्रवण और स्पर्श कहा जाता है। किंतु एक और छठी इंद्री भी होती है जो दिखाई नहीं देती, लेकिन उसका अस्तित्व महसूस होता है। वह मन का केंद्रबिंदु भी हो सकता है या भृकुटी के मध्य स्थित आज्ञा चक्र जहाँ सुषुन्मा नाड़ी स्थित है।

सिक्स्थ सेंस के कई किस्से-कहानियाँ किताबों में भरे पड़े हैं। इस ज्ञान पर कई तरह की फिल्में भी बन चुकी हैं और उपन्यासकारों ने इस पर उपन्यास भी लिखे हैं। प्राचीनकाल या मध्यकाल में छठी इंद्री ज्ञान प्राप्त कई लोग हुआ करते थे, लेकिन आज कहीं भी दिखाई नहीं देते तो उसके भी कई कारण हैं।

मेस्मेरिज्म या हिप्नोटिज्म जैसी अनेक विद्याएँ इस छठी इंद्री के जाग्रत होने का ही कमाल होता है। हम आपको बताना चाहते हैं कि छठी इंद्री क्या होती है और योग द्वारा इसकी शक्ति कैसे हासिल की जा सकती है और यह भी कि जीवन में हम इसका इस्तेमाल किस तरह कर सकते हैं।

क्या है छठी इंद्री : मस्तिष्क के भीतर कपाल के नीचे एक छिद्र है, उसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं, वहीं से सुषुन्मा रीढ़ से होती हुई मूलाधार तक गई है। सुषुन्मा नाड़ी जुड़ी है सहस्रकार से।

इड़ा नाड़ी शरीर के बायीं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दायीं तरफ अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर स्थित रहता है। सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः जब हमारे दोनों स्वर चलते हैं तो माना जाता है कि सुषम्ना नाड़ी सक्रिय है। इस सक्रियता से ही सिक्स्थ सेंस जाग्रत होता है।

इड़ा, पिंगला और सुषुन्मा के अलावा पूरे शरीर में हजारों नाड़ियाँ होती हैं। उक्त सभी नाड़ियों का शुद्धि और सशक्तिकरण सिर्फ प्राणायाम और आसनों से ही होता है। शुद्धि और सशक्तिकरण के बाद ही उक्त नाड़ियों की शक्ति को जाग्रत किया जा सकता है।


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छठी इंद्री के जाग्रत होने से क्या होगा : व्यक्ति में भविष्य में झाँकने की क्षमता का विकास होता है। अतीत में जाकर घटना की सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। मीलों दूर बैठे व्यक्ति की बातें सुन सकते हैं। किसके मन में क्या विचार चल रहा है इसका शब्दश: पता लग जाता है। एक ही जगह बैठे हुए दुनिया की किसी भी जगह की जानकारी पल में ही हासिल की जा सकती है। छठी इंद्री प्राप्त व्यक्ति से कुछ भी छिपा नहीं रह सकता और इसकी क्षमताओं के विकास की संभावनाएँ अनंत हैं।

कैसे जाग्रत करें छठी इंद्री : यह इंद्री सभी में सुप्तावस्था में होती है। भृकुटी के मध्य निरंतर और नियमित ध्यान करते रहने से आज्ञाचक्र जाग्रत होने लगता है जो हमारे सिक्स्थ सेंस को बढ़ाता है। योग में त्राटक और ध्यान की कई विधियाँ बताई गई हैं। उनमें से किसी भी एक को चुनकर आप इसका अभ्यास कर सकते हैं।

शांत-स्वच्छ वातावरण : अभ्यास के लिए सर्वप्रथम जरूरी है साफ और स्वच्छ वातावरण, जहाँ फेफड़ों में ताजी हवा भरी जा सके अन्यथा आगे नहीं बढ़ा जा सकता। शहर का वातावरण कुछ भी लाभदायक नहीं है, क्योंकि उसमें शोर, धूल, धुएँ के अलावा जहरीले पदार्थ और कार्बन डॉक्साइट निरंतर आपके शरीर और मन का क्षरण करती रहती है।

प्राणायाम का अभ्यास : वैज्ञानिक कहते हैं कि दिमाग का सिर्फ 15 से 20 प्रतिशत हिस्सा ही काम करता है। हम ऐसे पोषक तत्व ग्रहण नहीं करते जो मस्तिष्क को लाभ पहुँचा सकें, तब प्राणायाम ही एकमात्र उपाय बच जाता है। इसके लिए सर्वप्रथम जाग्रत करना चाहिए समस्त वायुकोषों को। फेफड़ों और हृदय के करोड़ों वायुकोषों तक श्वास द्वारा हवा नहीं पहुँच पाने के कारण वे निढाल से ही पड़े रहते हैं। उनका कोई उपयोग नहीं हो पाता।

उक्त वायुकोषों तक प्राणायाम द्वारा प्राणवायु मिलने से कोशिकाओं की रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ जाती है, नए रक्त का निर्माण होता है और सभी नाड़ियाँ हरकत में आने लगती हैं। छोटे-छोटे नए टिश्यू बनने लगते हैं। उनकी वजह से चमड़ी और त्वचा में निखार और तरोताजापन आने लगता है।

*तो सभी तरह के प्राणायाम को नियमित करना आवश्यक है।

मौन ध्यान :
भृकुटी पर ध्यान लगाकर निरंतर मध्य स्थित अँधेरे को देखते रहें और यह भी जानते रहें कि श्वास अंदर और बाहर ‍हो रही है। मौन ध्यान और साधना मन और शरीर को मजबूत तो करती ही है, मध्य स्थित जो अँधेरा है वही काले से नीला और ‍नीले से सफेद में बदलता जाता है। सभी के साथ अलग-अलग परिस्थितियाँ निर्मित हो सकती हैं।

मौन से मन की क्षमता का विकास होता जाता है जिससे काल्पनिक शक्ति और आभास करने की क्षमता बढ़ती है। इसी के माध्यम से पूर्वाभास और साथ ही इससे भविष्य के गर्भ में झाँकने की क्षमता भी बढ़ती है। यही सिक्स्थ सेंस के विकास की शुरुआत है।

अंतत: हमारे पीछे कोई चल रहा है या दरवाजे पर कोई खड़ा है, इस बात का हमें आभास होता है। यही आभास होने की क्षमता हमारी छठी इंद्री के होने की सूचना है। जब यह आभास होने की क्षमता बढ़ती है तो पूर्वाभास में बदल जाती है। मन की स्थिरता और उसकी शक्ति ही छठी इंद्री के विकास में सहायक सिद्ध होती है।

भगवान कौन

ईश्वर के लिए कई तरह के शब्दों का उपयोग किया जाता है जैसे ब्रह्म, परमेश्वर, भगवान आदि, लेकिन ईश्‍वर न तो भगवान है और न ही देवता न ही देवाधिदेव। ईश्‍वर है परम सत्ता, जिसका स्वरूप है निराकार। जो उसे साकार सत्ता मानते हैं वे योगी नहीं, वैदिक नहीं।

योग सूत्र में पतंजलि लिखते हैं - 'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुष विशेष ईश्वरः। अर्थात- क्लेश, कर्म, विपाक और आशय- इन चारों से अपरामष्‍ट- जो संबंधित नहीं है वही पुरुष विशेष ईश्वर है। कहने का आशय यह है कि जो बंधन में है और जो मुक्त हो गया है वह पुरुष ईश्वर नहीं है, बल्कि ईश्वर न कभी बंधन में था, न है और न रहेगा।

ईश्वर, ब्रह्म, परमेश्वर या परमात्मा शब्द का किसी भी भगवान, देवी, देवता, पूजनीय हस्ती या वस्तु के लिए प्रयुक्त होता है तो वह अनुचित है। वेदों में ईश्वर के लिए 'ब्रह्म' शब्द का उपयोग किया जाता है। ब्रह्म का अर्थ होता है विस्तार। 'एकमेव ब्रह्म सत्य जगत मिथ्‍या।', 'अह्‍म ब्रह्मस्मी' और तत्वस्मी- उक्त तीन वाक्यों में वैदिक ईश्वर की धारणा निहित हैं।

वैष्णव लोग विष्णु, शैव लोग शिव, शाक्त लोग दुर्गा को ईश्वर मानते हैं, तो रामभक्त राम और कृष्णभक्त कृष्ण को जबकि ईश्वर उक्त सबसे सर्वोच्च है, ऐसा वेद और योगी कहते हैं।

परमेश्वर वो सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का सृष्टा और शासक माना जाता है, लेकिन योग का ईश्वर न तो सृष्टा और न ही शासक है। फिर भी उसी से ब्राह्मांड हुआ और उसी से ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश सहित अनेकानेक देवी-देवताओं हो गए। इन ब्रह्मा, विष्णु और महेश के बाद ही दस अवतारी महापुरुष हुए जिन्हें भगवान कहा जाता है और इन्हीं की परम्परा में असंख्य ऋषि, साधु, संत और महात्मा हो गए।

भगवान का मतलब ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा नहीं होता। भगवान शब्द विष्णु और उनके अवतारों, शिव और उनके अवतारों तथा मोक्ष, कैवल्य, बुद्धत्व या समाध‍ि प्राप्त महापुरुषों जैसे राम, कृष्ण, गौतम बुद्ध, महावीर के लिए उपयोग होता है।

ईश्वर प्राणिधान : ईश्वर प्राणिधान को शरणागति योग या भक्तियोग भी कहा जाता है। उस एक को छोड़ जो तरह-तरह के देवी-देवताओं में चित्त रमाता है उसका मन भ्रम और भटकाव में रम जाता है, लेकिन जो उस परम के प्रति अपने प्राणों की आहुति लगाने के लिए भी तैयार है, उसे ही 'ईश्वर प्राणिधान' कहते हैं। ईश्वर उन्हीं के लिए मोक्ष के मार्ग खोलता है, जो उसके प्रति शरणागत हैं।

मन, वचन और कर्म से ईश्वर की आराधना करना और उनकी प्रशंसा करने से चित्त में एकाग्रता आती है। इस एकाग्रता से ही शक्ति केंद्रित होकर हमारे दु:ख और रोग कट जाते हैं। 'ईश्वर पर कायम' रहने से शक्ति का बिखराव बंद होता है।

अंतत: : यह कि योगी या योग का ईश्वर एक परम शक्ति है जो न कर्ता, धर्ता या संहारक नहीं है। योगी सिर्फ उस निराकार ब्रह्म पर ही कामय रह कर ब्रह्मलीन हो जाता है।

कौन से आसन है फ़ायेइदेमन्द

1) पद्‍मासन : इस आसन से कूल्हों के जाइंट, माँसमेशियाँ, पेट, मूत्राशय और घुटनों में खिंचाव होता है जिससे इनमें मजबूती आती है और यह सेहतमंद बने रहते हैं। इस मजबूती के कारण उत्तेजना का संचार होता है। उत्तेजना के संचार से आनंद की दीर्घता बढ़ती है।

(2) भुजंगासन : भुजंगासन आपकी छाती को चौड़ा और मजबूत बनाता है। मेरुदंड और पीठ दर्द संबंधी समस्याओं को दूर करने में फायदेमंद है। यह स्वप्नदोष को दूर करने में भी लाभदायक है। इस आसन के लगातार अभ्यास से वीर्य की दुर्बलता समाप्त होती है।

(3) सर्वांगासन : यह आपके कंधे और गर्दन के हिस्से को मजबूत बनाता है। यह नपुंसकता, निराशा, यौन शक्ति और यौन अंगों के विभिन्न अन्य दोष की कमी को भी दूर करता है।

(4) हलासन : यौन ऊर्जा को बढ़ाने के लिए इस आसन का इस्तेमाल किया जा सकता है। यह पुरुषों और महिलाओं की यौन ग्रंथियों को मजबूत और सक्रिय बनाता है।

(5) धनुरासन : यह कामेच्छा जाग्रत करने और संभोग क्रिया की अवधि बढ़ाने में सहायक है। पुरुषों के ‍वीर्य के पतलेपन को दूर करता है। लिंग और योनि को शक्ति प्रदान करता है।

(6) पश्चिमोत्तनासन : सेक्स से जुड़ी समस्त समस्या को दूर करने में सहायक है। जैसे कि स्वप्नदोष, नपुंसकता और महिलाओं के मासिक धर्म से जुड़े दोषों को दूर करता है।

(7) भद्रासन : भद्रासन के नियमित अभ्यास से रति सुख में धैर्य और एकाग्रता की शक्ति बढ़ती है। यह आसन पुरुषों और महिलाओं के स्नायु तंत्र और रक्तवह-तन्त्र को मजबूत करता है।

(8) मुद्रासन : मुद्रासन तनाव को दूर करता है। महिलाओं के मासिक धर्म से जुड़े हए विकारों को दूर करने के अलावा यह आसन रक्तस्रावरोधक भी है। मूत्राशय से जुड़ी विसंगतियों को भी दूर करता है।

(9) मयुरासन : पुरुषों में वीर्य और शुक्राणुओं में वृद्धि होती है। महिलाओं के मासिक धर्म के विकारों को सही करता है। लगातार एक माह तक यह आसन करने के बाद आप पूर्ण संभोग सुख की प्राप्ति कर सकते हो।

(10) कटी चक्रासन : यह कमर, पेट, कूल्हे, मेरुदंड तथा जंघाओं को सुधारता है। इससे गर्दन और कमर में लाभ मिलता है। यह आसन गर्दन को सुडौल बनाकर कमर की चर्बी घटाता है। शारीरिक थकावट तथा मानसिक तनाव दूर करता है।

नोट : योग के उक्त सभी आसन योग शिक्षक से सलाह लेकर ही करें।

कामसूत्र और आसन

आमतौर पर यह धारणा प्रचलित है कि संभोग के अनेक आसन होते हैं। 'आसन' कहने से हमेशा योग के आसन ही माने जाते रहे हैं। जबकि संभोग के सभी आसनों का योग के आसनों से कोई संबंध नहीं। लेकिन यह भी सच है योग के आसनों के अभ्यास से संभोग के आसनों को करने में सहजता पाई जा सकती है।

योग के आसन : योग के आसनों को हम पाँच भागों में बाँट सकते हैं:-
(1). पहले प्रकार के वे आसन जो पशु-पक्षियों के उठने-बैठने और चलने-फिरने के ढंग के आधार पर बनाए गए हैं जैसे- वृश्चिक, भुंग, मयूर, शलभ, मत्स्य, सिंह, बक, कुक्कुट, मकर, हंस, काक आदि।
(2). दूसरी तरह के आसन जो विशेष वस्तुओं के अंतर्गत आते हैं जैसे- हल, धनुष, चक्र, वज्र, शिला, नौका आदि।
(3). तीसरी तरह के आसन वनस्पतियों और वृक्षों पर आधारित हैं जैसे- वृक्षासन, पद्मासन, लतासन, ताड़ासन आदि।
(4). चौथी तरह के आसन विशेष अंगों को पुष्ट करने वाले माने जाते हैं-जैसे शीर्षासन, एकपादग्रीवासन, हस्तपादासन, सर्वांगासन आदि।
(5). पाँचवीं तरह के वे आसन हैं जो किसी योगी के नाम पर आधारित हैं-जैसे महावीरासन, ध्रुवासन, मत्स्येंद्रासन, अर्धमत्स्येंद्रासन आदि।

संभोग के आसनों का नाम : आचार्य बाभ्रव्य ने कुल सात आसन बताए हैं- 1. उत्फुल्लक, 2. विजृम्भितक, 3. इंद्राणिक, 4. संपुटक, 5. पीड़ितक, 6. वेष्टितक, 7. बाड़वक।

आचार्य सुवर्णनाभ ने दस आसन बताए हैं: 1.भुग्नक, 2.जृम्भितक, 3.उत्पी‍ड़ितक, 4.अर्धपीड़ितक, 5.वेणुदारितक, 6.शूलाचितक, 7.कार्कटक, 8.पीड़ितक, 9.पद्मासन और 10. परावृत्तक।



आचार्य वात्स्यायन के आसन :
विचित्र आसन : 1.स्थिररत, 2.अवलम्बितक, 3.धेनुक, 4.संघाटक, 5.गोयूथिक, 6.शूलाचितक, 7.जृम्भितक और 8.वेष्टितक।
अन्य आसन : 1.उत्फुल्लक, 2.विजृम्भितक, 3.इंद्राणिक, 4. संपुटक, 5. पीड़ितक, 6.बाड़वक 7. भुग्नक 8.उत्पी‍ड़ितक, 9. अर्धपीड़ितक, 10.वेणुदारितक, 11. कार्कटक 12. परावृत्तक आसन 13. द्वितल और 14. व्यायत। कुल 22 आसन होते हैं।

यहाँ आसनों के नाम लिखने का आशय यह कि योग के आसनों और संभोग के आसनों के संबंध में भ्रम की निष्पत्ति हो। संभोग के उक्त आसनों में पारंगत होने के लिए योगासन आपकी मदद कर सकते हैं। इसके लिए आपको शुरुआत करना चाहिए 'अंग संचालन' से अर्थात सूक्ष्म व्यायाम से। इसके बाद निम्नलिखित आसन करें

सहज योग

योग शब्द के दो अर्थ हैं और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। पहला है- जोड़ और दूसरा है समाधि। जब तक हम स्वयं से नहीं जुड़ते, समाधि तक पहुँचना कठिन होगा। योग दर्शन या धर्म नहीं, गणित से कुछ ज्यादा है। दो में दो मिलाओ चार ही आएँगे। चाहे विश्वास करो या मत करो, सिर्फ करके देख लो। आग में हाथ डालने से हाथ जलेंगे ही, यह विश्वास का मामला नहीं है।

योग है विज्ञान : 'योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे है। योग एक सीधा विज्ञान है। प्रायोगिक विज्ञान है। योग है जीवन जीने की कला। योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। एक पूर्ण मार्ग है-राजपथ। दरअसल धर्म लोगों को खूँटे से बाँधता है और योग सभी तरह के खूँटों से मुक्ति का मार्ग बताता है।'-ओशो

जैसे बाहरी विज्ञान की दुनिया में आइंस्टीन का नाम सर्वोपरि है, वैसे ही भीतरी विज्ञान की दुनिया के आइंस्टीन हैं पतंजलि। जैसे पर्वतों में हिमालय श्रेष्ठ है, वैसे ही समस्त दर्शनों, विधियों, नीतियों, नियमों, धर्मों और व्यवस्थाओं में योग श्रेष्ठ है।

आष्टांग योग : पतंजलि ने ईश्वर तक, सत्य तक, स्वयं तक, मोक्ष तक या कहो कि पूर्ण स्वास्थ्य तक पहुँचने की आठ सीढ़ियाँ निर्मित की हैं। आप सिर्फ एक सीढ़ी चढ़ो तो दूसरी के लिए जोर नहीं लगाना होगा, सिर्फ पहली पर ही जोर है। पहल करो। जान लो कि योग उस परम शक्ति की ओर क्रमश: बढ़ने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। आप यदि चल पड़े हैं तो पहुँच ही जाएँगे।

बदलो स्वयं को

आपको ईश्वर को जानना है, सत्य को जानना है, सिद्धियाँ प्राप्त करना हैं या कि सिर्फ स्वस्थ रहना है, तो पतंजलि कहते हैं कि शुरुआत शरीर के तल से ही करना होगी। शरीर को बदलो मन बदलेगा। मन बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी।

योग वृहत्तर विषय है। आपने सुना होगा- ज्ञानयोग, भक्तियोग, धर्मयोग और कर्मयोग। इन सभी में योग शब्द जुड़ा हुआ है। फिर हठयोग भी सुना होगा, लेकिन इन सबको छोड़कर जो राजयोग है, वही पतंजल‍ि का योग है।

इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम आष्टांग योग के नाम से जानते हैं। आष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में श्रेणीबद्ध कर दिया है। अब इससे बाहर कुछ भी नहीं है।

प्रारम्भिक पाँच अंगों से योग विद्या में प्रविष्ठ होने की तैयारी होती है, अर्थात समुद्र में छलाँग लगाकर भवसागर पार करने के पूर्व तैराकी का अभ्यास इन पाँच अंगों में सिमटा है। इन्हें किए बगैर भवसागर पार नहीं कर सकते और जो इन्हें करके छलाँग नहीं लगाएँगे, तो यहीं रह जाएँगे। बहुत से लोग इन पाँचों में पारंगत होकर योग के चमत्कार बताने में ही अपना जीवन नष्ट कर बैठते हैं।

यह आठ अंग हैं- (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।

बदलो स्वयं को : आपको ईश्वर को जानना है, सत्य को जानना है, सिद्धियाँ प्राप्त करना हैं या कि सिर्फ स्वस्थ रहना है, तो पतंजलि कहते हैं कि शुरुआत शरीर के तल से ही करना होगी। शरीर को बदलो मन बदलेगा। मन बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी। बुद्धि बदलेगी तो आत्मा स्वत: ही स्वस्थ हो जाएगी। आत्मा तो स्वस्थ है ही। एक स्वस्थ आत्मचित्त ही समाधि को उपलब्ध हो सकता है।

जिनके मस्तिष्क में द्वंद्व है, वह हमेशा चिंता, भय और संशय में ही ‍जीते रहते हैं। उन्हें जीवन एक संघर्ष ही नजर आता है, आनंद नहीं। योग से समस्त तरह की चित्तवृत्तियों का निरोध होता है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। चित्त अर्थात बुद्धि, अहंकार और मन नामक वृत्ति के क्रियाकलापों से बनने वाला अंत:करण। चाहें तो इसे अचेतन मन कह सकते हैं, लेकिन यह अंत:करण इससे भी सूक्ष्म माना गया है।

दुनिया के सारे धर्म इस चित्त पर ही कब्जा करना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने तरह-तरह के नियम, क्रिया कांड, ग्रह-नक्षत्र और ईश्वर के प्रति भय को उत्पन्न कर लोगों को अपने-अपने धर्म से जकड़े रखा है। पतंजल‍ि कहते हैं कि इस चित्त को ही खत्म करो।

योग विश्वास करना नहीं सिखाता और न ही संदेह करना। और विश्‍वास तथा संदेह के बीच की अवस्था संशय के तो योग बहुत ही खिलाफ है। योग कहता है कि आपमें जानने की क्षमता है, इसका उपयोग करो।

आपकी आँखें हैं इससे और भी कुछ देखा जा सकता है, जो सामान्य तौर पर दिखता नहीं। आपके कान हैं, इनसे वह भी सुना जा सकता है जिसे अनाहत कहते हैं। अनाहत अर्थात वैसी ध्वन‍ि जो किसी संघात से नहीं जन्मी है, जिसे ज्ञानीजन ओम कहते हैं, वही आमीन है, वही ओमीन और ओंकार है।

अंतत : तो, सर्वप्रथम आप अपनी इंद्रियों को बलिष्ठ बनाओ। शरीर को डायनामिक बनाओ। और इस मन को स्वयं का गुलाम बनाओ। और यह सब कुछ करना बहुत सरल है- दो दुनी चार जैसा।

योग कहता है कि शरीर और मन का दमन नहीं करना है, बल्कि इसका रूपांतर करना है। इसके रूपांतर से ही जीवन में बदलाव आएगा। यदि आपको लगता है कि मैं अपनी आदतों को नहीं छोड़ पा रहा हूँ, जिनसे कि मैं परेशान हूँ तो चिंता मत करो। उन आदतों में एक 'योग' को और शामिल कर लो और बिलकुल लगे रहो। आप न चाहेंगे तब भी परिणाम सामने आएँगे।

इस्वर कौन है

आपको ईश्वर को जानना है, सत्य को जानना है, सिद्धियाँ प्राप्त करना हैं या कि सिर्फ स्वस्थ रहना है, तो पतंजलि कहते हैं कि शुरुआत शरीर के तल से ही करना होगी। शरीर को बदलो मन बदलेगा। मन बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी।

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

What is a Friend?

What is a Friend?

A friend is
Someone who cares about you,
Someone who likes you just the way you are.

A friend is
Someone who does things with you,
Someone who keeps your secrets.

A friend is
Someone who sometimes gets angry with you,
Someone who might hurt your feelings sometimes
even when they don't mean to.

A friend is
Someone who comforts you when you're sad,
Someone who laughs with you when you're happy.

A friend is
Someone who wants to be with you,
Someone who enjoys your company.

A friend is
Someone you'll remember always
Even when they grow up and move away.

A friend is
Someone who is loyal and says good things about you,
Someone who gets mad if someone else is mean to you.

A friend is
A link to someone's humanity like food for the soul to share,
Someone to hold onto when life's follies bring despair.

A friend is
F-frank, R-righteous, I-intrepid, E-earnest, N-noble, D-decent

A friend is a friend—always

vichar

• When god solves your problem you have faith in his abilities, but when he doesn’t solve your problems, remember he has faith in your abilities.


• Wining does not always mean being first. Winning means you are doing better than you have ever done before.

• No one can go back & make a new beginning but any one can start from now and make a happy ending.

• The beauty of life does not depend on how happy u r but on how happy others can be…. because of u.

• Energy of success has three wings IDEA, INSPIRATION, IMPLIMENTATION.

• There is law of life when one door close to us another opens.

• lius oks ugha gksrs tks lksrs esa ns[ks tkrs gSa lius os gksrs gS tks gesa lksus ugh nsrsA

• If you want real peace don’t talk to your friends, talk with your enemies.

• In the middle of every difficulty lies opportunity.

• If the path is beautiful don’t ask where it leads, if the destination is beautiful don’t ask how’s the path, just keep walking as this journey called life is beautiful.

• Success & excuses do not walk together. If you give excuses.. Forget about success & if you want success.. do not give excuses. Have a successful life ahead.

• A relation is liked a lovely bird, if u catch tightly strongly it dies, if u catch it loosely.. It flies, but if catch it affectionately it remains with u forever.

• Man prayed to God, ‘give me everything to enjoy life.’ God smiled and replied, ‘I have given you life to enjoy everything.’

• Don’t worry for the delay success in your success compared to others coz construction of pyramid takes more time than ordinary buildings…

• Alone I can only say but together we can shout, alone I can only smile but together we can laugh, alone I can only live but together we can celebrate. That’s being friends.

नीतिया

टेलीविजन इसलिए है कि आप उसपर दिखाई दे इसलिए नही कि आप उसे देख कर अपना समय ख़राब करे।

प्रयास से प्रेरणा पैदा होती है प्रेरणा से प्रयास नही पैदा होता ।

अनुशासन लक्ष्य और उसे हासिल करने के बीच का सेतु है ।

आहार विज्ञान का पहला नियम शायद यह है कि अगर किसी चीज का स्वाद अच्छा है तो वह आपके स्वास्थ्य के लिए अच्छी नही है ।

पानी हमारी खुराक का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है लेकिन हम उसे ही सबसे ज्यादा नजरंदाज़ करते है।

अगर आप अपने बच्चो के लिए अच्छा उदाहरण पेश करना कहते है तो अपनी प्रौढ़ावस्था से सारी मौज मस्ती को निकल फेकिए।


शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009