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बुधवार, 23 दिसंबर 2009

ख़ुद दिल में रह के आँख से पर्दा करे कोई|
हाँ लुत्फ़ जब है पाके भी ढूँढा करे कोई|

तुम ने तो हुक्म-ए-तर्क-ए-तमन्ना सुना दिया,
किस दिल से आह तर्क-ए-तमन्ना करे कोई|

दुनिया लरज़ गई दिल-ए-हिरमाँनसीब की,
इस तरह साज़-ए-ऐश न छेड़ा करे कोई|

मुझ को ये आरज़ू वो उठायें नक़ाब ख़ुद,
उन को ये इन्तज़ार तक़ाज़ा करे कोई|

रन्गीनी-ए-नक़ाब में ग़ुम हो गई नज़र,
क्या बे-हिजाबियों का तक़ाज़ा करे कोई|

या तो किसी को जुर्रत-ए-दीदार ही न हो,
या फिर मेरी निगाह से देखा करे कोई|

होती है इस में हुस्न की तौहीन ऐ 'मज़ाज़',
इतना न अहल-ए-इश्क़ को रुसवा करे कोई|

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