ईश्वर के लिए कई तरह के शब्दों का उपयोग किया जाता है जैसे ब्रह्म, परमेश्वर, भगवान आदि, लेकिन ईश्वर न तो भगवान है और न ही देवता न ही देवाधिदेव। ईश्वर है परम सत्ता, जिसका स्वरूप है निराकार। जो उसे साकार सत्ता मानते हैं वे योगी नहीं, वैदिक नहीं।
योग सूत्र में पतंजलि लिखते हैं - 'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुष विशेष ईश्वरः। अर्थात- क्लेश, कर्म, विपाक और आशय- इन चारों से अपरामष्ट- जो संबंधित नहीं है वही पुरुष विशेष ईश्वर है। कहने का आशय यह है कि जो बंधन में है और जो मुक्त हो गया है वह पुरुष ईश्वर नहीं है, बल्कि ईश्वर न कभी बंधन में था, न है और न रहेगा।
ईश्वर, ब्रह्म, परमेश्वर या परमात्मा शब्द का किसी भी भगवान, देवी, देवता, पूजनीय हस्ती या वस्तु के लिए प्रयुक्त होता है तो वह अनुचित है। वेदों में ईश्वर के लिए 'ब्रह्म' शब्द का उपयोग किया जाता है। ब्रह्म का अर्थ होता है विस्तार। 'एकमेव ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या।', 'अह्म ब्रह्मस्मी' और तत्वस्मी- उक्त तीन वाक्यों में वैदिक ईश्वर की धारणा निहित हैं।
वैष्णव लोग विष्णु, शैव लोग शिव, शाक्त लोग दुर्गा को ईश्वर मानते हैं, तो रामभक्त राम और कृष्णभक्त कृष्ण को जबकि ईश्वर उक्त सबसे सर्वोच्च है, ऐसा वेद और योगी कहते हैं।
परमेश्वर वो सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का सृष्टा और शासक माना जाता है, लेकिन योग का ईश्वर न तो सृष्टा और न ही शासक है। फिर भी उसी से ब्राह्मांड हुआ और उसी से ब्रह्मा, विष्णु और महेश सहित अनेकानेक देवी-देवताओं हो गए। इन ब्रह्मा, विष्णु और महेश के बाद ही दस अवतारी महापुरुष हुए जिन्हें भगवान कहा जाता है और इन्हीं की परम्परा में असंख्य ऋषि, साधु, संत और महात्मा हो गए।
भगवान का मतलब ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा नहीं होता। भगवान शब्द विष्णु और उनके अवतारों, शिव और उनके अवतारों तथा मोक्ष, कैवल्य, बुद्धत्व या समाधि प्राप्त महापुरुषों जैसे राम, कृष्ण, गौतम बुद्ध, महावीर के लिए उपयोग होता है।
ईश्वर प्राणिधान : ईश्वर प्राणिधान को शरणागति योग या भक्तियोग भी कहा जाता है। उस एक को छोड़ जो तरह-तरह के देवी-देवताओं में चित्त रमाता है उसका मन भ्रम और भटकाव में रम जाता है, लेकिन जो उस परम के प्रति अपने प्राणों की आहुति लगाने के लिए भी तैयार है, उसे ही 'ईश्वर प्राणिधान' कहते हैं। ईश्वर उन्हीं के लिए मोक्ष के मार्ग खोलता है, जो उसके प्रति शरणागत हैं।
मन, वचन और कर्म से ईश्वर की आराधना करना और उनकी प्रशंसा करने से चित्त में एकाग्रता आती है। इस एकाग्रता से ही शक्ति केंद्रित होकर हमारे दु:ख और रोग कट जाते हैं। 'ईश्वर पर कायम' रहने से शक्ति का बिखराव बंद होता है।
अंतत: : यह कि योगी या योग का ईश्वर एक परम शक्ति है जो न कर्ता, धर्ता या संहारक नहीं है। योगी सिर्फ उस निराकार ब्रह्म पर ही कामय रह कर ब्रह्मलीन हो जाता है।
रविवार, 6 दिसंबर 2009
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1 टिप्पणी:
नमस्ते श्रीमान संदीप खरे जी,
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