tag:blogger.com,1999:blog-6532708706295541146.post3400578615593796962..comments2022-11-21T16:26:19.425+05:30Comments on article: कुण्डलिनी योगsandeep kharehttp://www.blogger.com/profile/15629305622936916743noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-6532708706295541146.post-19857539125788416922016-11-01T11:47:29.617+05:302016-11-01T11:47:29.617+05:30मूत्र स्थान यों प्रकार से घृणित एवं उपेक्षित स्थान...मूत्र स्थान यों प्रकार से घृणित एवं उपेक्षित स्थान है। पर तत्त्वतः उसकी सामर्थ्य मस्तिष्क में अवस्थित ब्रह्मरंध्र जितनी ही है। वह हमारी सक्रियता का केन्द्र है। यों नाक, कान आदि छिद्र भी मल विसर्जन के लिए प्रयुक्त होते हैं, पर उन्हें कोई ढकता नहीं। मूत्र यन्त्र को ढकने की अनादि एवं आदिम परिपाटी के पीछे वह सतर्कता है, जिसमें यह निर्देश कि इस स्थान से जो अजस्र शक्ति प्रवाह बहता है, उसकी रक्षा की जानी चाहिये। शरीर के अन्य अंगों की तरह यों प्रजनन अवयव भी माँस-मज्जा मात्र से ही बने हैं, पर उनके दर्शन मात्र से मन विचलित हो उठता है। अश्लील चित्र अथवा अश्लील चिन्तन जब मस्तिष्क में उथल-पुथल पैदा कर देता है, तब उन अवयवों का दर्शन यदि भावनात्मक हलचल को उच्छृंखल बनादे तो आश्चर्य ही क्या? यहाँ यह रहस्य जान लेना ही चाहिये। मूत्र संस्थान के मूत में बैठी हुई कुंडलिनी शक्ति प्रसुप्त स्थिति में भी इतनी तीव्र है कि उसकी प्रचण्ड धारायें खुली प्रवाहित नहीं रहने दी जा सकती हैं। उन्हें आवरण में रखने से उनका अपव्यय बचता है और अन्यों के मानसिक संतुलन को क्षति नहीं पहुंचती। छोटे बच्चो को भी कटिबन्ध इसलिये पहनाते हैं। ब्रह्मचारियों को धोती के अतिरिक्त लंगोट भी बाँधे रहना पड़ता है। पहलवान भी ऐसा ही करते हैं। संन्यास और वानप्रस्थ में यही प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।<br />शिव लिंग के पूजा प्रचलन में एक महान आध्यात्मिक तत्व-ज्ञान का संकेत है, जिसमें व्यक्ति को सचेत किया गया है कि वह शरीर के इस अवयव में ईश्वरीय दिव्यशक्ति का अति उत्कृष्ट अंश समाविष्ट समझे और इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर की क्रिया शक्ति-कुण्डलिनी का प्रतीक प्रतिनिधि माने। शिव लिंग का जल अभिषेक करने का तात्पर्य यह भी है कि इस शक्ति के महान आध्यात्मिक लाभों को प्राप्त करने के लिये यह आवश्यक है कि उसे शीतल रखा जाय, उदीप्त न होने दिया जाय। योगी-यती अपनी साधनाओं में यह तत्वज्ञान संजोये ही रहते हैं कि उन्हें ब्रह्मचर्य पूर्वक रहना चाहिये, ताकि पिण्ड की- देह की- मूलाधार क्रिया शक्ति कुण्डलिनी का अपव्यय न हो और वह बहिर्मुखी होकर अस्त-व्यस्त बनने, उच्छृंखल होने की अपेक्षा लौटकर ऊर्ध्वगामी दिशा पकड़ती हुई ब्रह्मरंध्र अवस्थित महासर्प के साथ तादात्म्य होकर परमानन्द- ब्रह्मानन्द का लक्ष्य प्राप्त कर सके।Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/18335737686560639564noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6532708706295541146.post-75023045833727110392013-02-24T11:30:56.690+05:302013-02-24T11:30:56.690+05:30शुकरीया !! यह महत्वपुर्ण है ।शुकरीया !! यह महत्वपुर्ण है ।Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/07295470143879063857noreply@blogger.com